Wednesday 6 February 2013


भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यकों का यथार्थ

भारतीय राजनीति में किसी भी घटनाक्रम पर अल्प- संख्यक समुदायों के हितों को लेकर सदैव उत्तेजित चर्चा रही है। यह अलग बात है कि सामान्यतः आम लोग एक-दूसरे के धर्म में दखलंदाजी नहीं देते तथा अपने दैनिक जीवन में आजीविका के लिए निजी कार्य-कलापों तक सीमित रहते हैं। आम जन की स्वाभाविक सोच है कि सुखः दुख के मौके पर पड़ोसी ही काम आएगा। चाहे उसकी आस्था किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के प्रति क्यों न हो। परन्तु भारतीय राजनीति में ऐसा सुखद वातावरण नहीं है। अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर राजनैतिक दलों में अंर्तद्वंद रहता है। इसका एक बड़ा कारण अल्पसंख्यकों का राजनीतिक दृष्टि से परिपक्क होना भी है। क्योंकि अल्पसंख्यक वर्ग का प्रादुर्भाव का कारण भी बहुसंख्यक समाज को नई दिशा दिखाने का रहा है। इस प्रकार से हम देखते है कि अल्पसंख्यकों के हितों को लेकर राजनीतिक दल उन्हें अपने-अपने हिसाब से पालो में खींचे हुए हैं। एक प्रमुख राजनीतिक दल के विरोध का प्रमुख कारण केवल बहुसंख्यकों को भावनात्मक रूप से आकृषित करने मात्र तक सीमित है। कुछ राजनीतिक दलों का आधार ही अल्पसंख्यकों तक है। भारतीय राजनीति को अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक के बीच समानुपातिक बहस बड़े व्यापक रूप से प्रभावित करती है तथा देश के हित व अहित जुड़े है अतएव इस विषय वस्तु को विस्तार से अध्ययन करने की परम आवश्यकता है।
भारत में अल्पसंख्यकों को इतिहासः-भारतीय समाज में निवास कर रहे अल्पसंख्यकों को हम अध्ययन की सुविधा के लिए दो श्रेणियों में रखते हैं। पहली श्रेणी में हम बौद्ध, जैन व सिक्ख समाज को लेते है। जिनकी आस्था भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई है। ईसा पूर्व करीब 6वी शताब्दी में पहली बार धार्मिक क्रांति हुई और तत्कालीन क्षत्रिय हिन्दू राजाओं ने यज्ञों, कर्मकांड़ांे तथा परोहितों की प्रधानता को समाप्त कर उत्तम आचरण तथा समानता के बीजारोपण के साथ-साथ जनमानस को सरल एवं सुगम्य जीवन जीने की कला से अवगत कराते हुए बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की अवधारणा को अवतरित किया तथा इसका प्रचार-प्रसार देश के साथ-साथ विदेशों में  भी किया परन्तु कालांतर में बौद्ध धर्म का विकास भारत में लुप्त हो गया, सिवाय इस प्रसंग को छोड़कर की डॉ. भीमराव अम्बेड़कर के आह्वान पर हजारों दलितों ने बौद्ध धर्म को अंगीकार किया परन्तु उनको दलित वर्ग मंे ही शुमार किया जाता है तथा दलित राजनीति का हिस्सा है न कि अल्प संख्यक समाज का। बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रचुर मात्रा में प्रचार हुआ जैसा कि आज भी विद्यमान है परन्तु जैन धर्म विदेशों में न जाकर भारत में ही सीमित रहकर जाति विशेष (वैश्य) का अभिन्न अंग बन गया। अतः जैन धर्म के अनुयायियों को एक प्रकार से बहुसंख्यक समाज का अंग के रूप में माना जाता है। सिक्ख धर्म की अवधारणा भारतीय संस्कृति के पुर्नउत्थान के दौर में हुई तथा इस दौर में अनेक संत महात्मा अवतरित हुए तथा भारतीय समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों-अंधविश्वासों व पाखंड का विरोध किया तथा स्वस्थ विचारों का प्रवचनों के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया। इसी परिपेक्ष्य में महान संत गुरु नानक देव की प्रेरणा से गुरु गोविन्द सिंह जी ने बहुसंख्यक समाज की रक्षा के लिए सिक्ख धर्म को अवतरित किया तथा तत्कालीन राजसत्ता की ज्यादतियों का डटकर विरोध किया। ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को सिक्ख धर्म को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था तथा इसका प्रचलन भी था। कट्टर पंथियों के दबाव में सिक्ख धर्म के ठेकेदारों ने मुख्यधारा से हटकर अलग धर्म की पहचान बनाई तथा अल्पसख्ंयकों के रूप में स्थापित किया।
दूसरी श्रेणी में हम मुस्लिम व ईसाइयों को लेते हैं, जिन्होंने विदेशी धर्म को स्वीकार किया। हमारा मानना है कि भारत के मुस्लिम ज्यादातर भारत की मुख्यधारा के ऐसे वर्ग विशेष के अंतर्गत आते हैं जिनके पुरखे सत्तासुख के आस-पास रहे और उस सुख को बनाए रखने के लिए मुगल शासकों से प्रभावित होकर विदेशी धर्म को स्वीकार कर लिया। क्योंकि इनकी जातियां व उपजातियां बहुसंख्यकों की वर्ग विशेष की अवधारणा अजगर (अहीर, जाट, गूजर, राजपूत) की भांति कुछ सत्ता सुख में अगड़े हो गये और कुछ सत्ता सुख में पिछड़े ही रह गये जैसा है कि मुस्लिम समाज की राजनीतिक जागरुकता दर्शाती है जो किसी हद तक आर्थिक पिछड़ेपन का भी बहुत बड़ा कारण है। परन्तु इसी दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत ईसाइयों के परिपेक्ष में ऐसा नहीं कहा जा सकता। भारत में रह रहे अधिकतर ईसाईयों ने सामाजिक भेदभाव व बदहाली की हालत से उभरने के लिए दलित समाज से अलग होकर अंग्रेजों के शासन काल में अंग्रेजों द्वारा प्रोत्साहित होकर विदेशी धर्म को स्वीकार किया परन्तु भारतीय ईसाई ज्यादातर शांत स्वभाव के सरल नागरिक हैं। 
अल्पसंख्यकों में तीन बड़ी महत्वपूर्ण समानतायें: भारत में निवास कर रहे सभी अल्पसंख्यकों में तीन बड़ी महत्वपूर्ण समानतायें हैं। पहली सभी अल्पसंख्यक इस देश के बहुसंख्यकों की भांति ही आदिकालीन भारतवासी हैं किसी को भी अपने को विदेशियों का वशंज होने का भ्रम नहीं रखना चाहिए चाहे वह मुस्लिम हैं अथवा ईसाई। हमारा मानना है कि हम सबके पूर्वज कभी न कभी सगे-सम्बंधी अवश्य रहे होंगे। दूसरी बड़ी महत्वपूर्ण समानता यह है कि कभी भी धर्म परिवर्तन, जोर-जबरदस्ती, तलवार या किसी भी प्रकार की ताकत के कारण नहीं हुआ, इसका मुख्य कारण सदैव सहमति, आस्था अथवा स्वार्थ रहा। तीसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण समानता यह है कि भारत के अर्वाचीन, पुरातन व सनातन संस्कृति को जब भी समाज के ठेकेदारों ने विकृत करने की कोशिश की, जीवंत मूल्यों के स्थान पर जड़ता मूलक विचारों को स्थापित करने का प्रयास किया गया अथवा प्रतीकों को साकार रूप में आस्था हेतू उकसाया तभी नया दृष्टिकोण धर्म के रूप में अथवा सामाजिक व धार्मिक परिवर्तन के रूप में सामने आया। 
राजनैतिक दल व अल्पसंख्यक: लोकतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था का आधार दल होते हैं। दलों की रचना निश्चित सिद्धांत, उच्च आदर्श, स्पष्ट विचारधारा पर आधारित होती है और जनता की विश्वसनीयता उनकी जनता के प्रति वचनबद्धता पर आधारित होती है, परन्तु दुर्भाग्य से आजादी के तीन दशकों के बाद से राजनीतिक दलों का चरित्र बदल गया है। सिद्धांत व विचारधारा लुप्त हो गई है और उसका स्थान वोटबैंक ने ले लिया है। प्रायः सभी राजनीतिक दल अल्पसंख्यक समुदाय को वोटबैंक के रूप में लेते हैं तथा उसके अनुसार ही दृष्टिकोण स्वीकारते हैं। इस पूरे प्रकरण को गहराई से तथा स्पष्टता के साथ समझने के लिये भारत के सभी राजनीतिक दलों को तीन श्रेणियों में रखकर विवेचन करते हैं। 
पहली श्रेणी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को लेते हैं जिनका वैचारिक व स्वभाविक दृष्टि से अल्पसंख्यकों के प्रति सदैव ही सकारात्मक दृष्टिकोण रहा है उसका प्रमुख कारण कांग्रेस का देश की आजादी के संघर्ष में जुड़े रहने का रहा। आजादी के संघर्ष से चाहे वह महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसापूर्ण आंदोलन था या क्रांतिकारियों का आंदोलन अथवा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज, सभी आंदोलनों में भारत के नागरिक चाहे व किसी भी धर्म में आस्था रखते थे, समान रूप से सहभागी रहे आजादी के बाद संवैधानिक रूप से भारतीय गणतंत्र को धर्म निर्पेक्ष के रूप में  स्वीकार करने में भी यही आधारभूत कारण रहा अतएव अधिकतर अल्पसंख्यक कांग्रेस के पक्षधर रहे और कांग्रेस का दृष्टिकोण भी सकारात्मक रहा यही कारण है कि आजादी के बाद लगभग तीन दशकों तक केन्द्र व राज्यों में कांग्रेस का पूरा वर्चस्व रहा। 
दूसरी श्रेणी में भारतीय राजनीति में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरे आजादी के बाद तीन दशकों तक भारतीय जनसंघ के रूप में तथा उसके बाद भारतीय जनता पार्टी को लेते हैं जिनका प्रमुख आधार बहुसंख्यक वर्गों का रहा है। यही कारण है अल्पसंख्यकों को लेकर इनका दृष्टिकोण सदैव संकुचित रहा है। भारतीय राजनीति में प्रायः देखा गया है कि भाजपा समय-समय पर बहुसंख्यकों के हिन्दुत्व की भावनात्मक भावना के आधार पर मतों के धु्रवीकरण का राजनैतिक लाभ उठाती रही है। यह अलग बात है कि भाजपा ने संवैधानिक बाध्यता के कारण कुछ मुस्लिम नेताओं को आगे करके धर्मनिर्पेक्षता का दिखावटी मुखौटा लगाया हुआ है।
तीसरी श्रेणी में बाकी सबदल आते है चाहे वे सीपीएम है अथवा सीपीआई या उनके सहयोगी। इसके साथ-साथ आरम्भ से विभिन्न समाजवादी पार्टियां बाद में चलकर जनता पार्टी फिर जनता दल और अब जनता दल के विभिन्न घड़े व समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी सभी लगभग अल्पसंख्यकों के प्रति एक जैसा यानि वोट बैंक की राजनीति के खातिर विभिन्न उपक्रमों द्वारा अल्पसंख्यकों को आकृषित करने का लक्ष्य साधते रहना है। साम्यवादी दलों को छोड़कर बाकी लगभग सभी दलों की कार्यप्रणाली विचारधारा एवं उद्देश्य एक जैसा है। सभी दल किसी व्यक्ति विशेष की बपौती की भांति व्यवसायिक संगठन के रूप में कार्य करते हैं। इनका पूरा तानाबान गैर लोकतांत्रिक विशुद्ध रूप से तानाशाही व जातिवाद की बुनियाद पर आधारित है। अल्पसंख्यकों का पक्षधर होना भी इनकी कूटनीतिज्ञता का एक हिस्सा है। इन कुंठित विचारों ने देश के लोकतंत्र को भी कमजोर किया है और राजनीतिक भ्रष्टाचार को जन्म दिया है। इसका सबसे बड़ा दुखदायी पहलु यह है कि साम्यवादी जिनके पास स्पष्ट व शुद्ध रूप से वैज्ञानिक सोच पर आधारित समाज की वर्ग संघर्ष की अवधारणा के होते हुए इन जातिवादी अराजक तत्वों की पूछ पकड़कर चलना है।
अल्पसंख्यकों को आरक्षण राजनीतिक छलावा: अल्पसंख्यकों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण देना अथवा इससे अधिक देने की बात करना और इसका विरोध करना सरासर राजनीतिक छलावा है क्योंकि हमारे संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने का न तो कोई प्रावधान है और न ही किसी आयोग की शिफारिश है, चाहे वह मंडल आयोग है अथवा सच्चर कमेटी। अलबत्ता सर्वोच्च न्यायालय ने भी मार्च 2010 में अल्पसंख्यकों की अगड़ी जातियों को आरक्षण देने में रोक लगाई थी। इस प्रकार से जब वह अधिकारिक तौर पर धर्म के नाम पर भारतीय जनता को अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक रूप में वर्गीकृत किया गया है और आरक्षण का आधार विशुद्ध रूप से धर्म न होकर जातिगत है फिर अल्पसंख्यक को आरक्षण की संज्ञा देना सरासर गलत है और भ्रम फैलाने जैसा है।
अल्पसंख्यकों का आरक्षण व जातिगत समीकरण: भारत में निवास कर रहे अल्पसंख्यकों के जातिगत समीकरण जैसा कि हम उपरोक्त में अल्पसंख्यकों के प्रादुर्भाव की परिस्थितियों की चर्चा की है ठीक उसी के अनुरूप जातिगत आधार है।
मंडल कमीशन ने मुस्लिमों की कुल आबादी 11.2 प्रतिशत मानते हुए इसके आधे से ज्यादा को पिछड़ा वर्ग का माना गया था इनमें जुलाहे, तेली, बढ़ई, धोबी आदि 80 मुस्लिम समूहों को पिछड़ा घोषित करते हुए 27 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग के दायरे में आने वाली जातियों में मुस्लिम आबादी 8 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा मानी गई थी और अन्य बहुसंख्यकों के पिछड़ों की भांति 27 प्रतिशत आरक्षण के दायरे के अंतर्गत ही प्रावधान किया गया था। भारतीय मुसलमानों में अनुसूचित व जनजातियां नहीं हैं इसलिए उनका 23 प्रतिशत आरक्षण के दायरे में आने का प्रश्न ही नहीं उठता जबकि इसके विपरीत बौद्धों, सिक्खों व ईसाईयों में पिछड़ी जातियां ही नहीं हैं। इसीलिए पिछड़ों के आरक्षण के दायरे में इन अल्पसंख्यकों को लाया नहीं गया है। अलबत्ता बौद्धों, सिक्खों व ईसाईयों में अनुसूचित व जनजाति के तहत जो अल्पसंख्यक आते है उनको 33 प्रतिशत आरक्षण के लाभ में शामिल किया गया है जैसा कि बहु संख्यकों के अनुसूचित व जनजाति के लोगों को मिल रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए 4.5 प्रतिशत अथवा इससे अधिक आ आरक्षण देना या जैसा कि देश के अनेक विभिन्न राज्यों में कोटे में से कोटा पहले ही प्राप्त हो रहा है भ्रम पैदा करता है हमारी नजर में कोटे के अंतर्गत छोटे कोटे में सीमित होना कैसे लाभप्रद माना जा सकता है यह तो सरासर घाटे का सौदा है।
अल्पसंख्यक खुलकर कर आगे आयें और देश को नई दिशा दें: इस लेख के माध्यम से भारत के तमाम अल्पसंख्यकों चाहे व मुस्लिम है बौद्ध है, ईसाई है अथवा सिक्ख सभी अल्पसंख्यक जातिगत आधारित आरक्षण के लोभ का त्याग करंे बहुसंख्यकों को मिलने वाले जातिगत आरक्षण का घोर विरोध करे तथा आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों को मिलने वाले आरक्षण की अवधारणा की आवाज को बुलन्द करें ताकि समूचे भारतवासियों का सर्वव्यापक  विकास सम्भव हो सके। इसी में सारे राष्ट्र का कल्याण है।