Wednesday, 6 February 2013


भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यकों का यथार्थ

भारतीय राजनीति में किसी भी घटनाक्रम पर अल्प- संख्यक समुदायों के हितों को लेकर सदैव उत्तेजित चर्चा रही है। यह अलग बात है कि सामान्यतः आम लोग एक-दूसरे के धर्म में दखलंदाजी नहीं देते तथा अपने दैनिक जीवन में आजीविका के लिए निजी कार्य-कलापों तक सीमित रहते हैं। आम जन की स्वाभाविक सोच है कि सुखः दुख के मौके पर पड़ोसी ही काम आएगा। चाहे उसकी आस्था किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के प्रति क्यों न हो। परन्तु भारतीय राजनीति में ऐसा सुखद वातावरण नहीं है। अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर राजनैतिक दलों में अंर्तद्वंद रहता है। इसका एक बड़ा कारण अल्पसंख्यकों का राजनीतिक दृष्टि से परिपक्क होना भी है। क्योंकि अल्पसंख्यक वर्ग का प्रादुर्भाव का कारण भी बहुसंख्यक समाज को नई दिशा दिखाने का रहा है। इस प्रकार से हम देखते है कि अल्पसंख्यकों के हितों को लेकर राजनीतिक दल उन्हें अपने-अपने हिसाब से पालो में खींचे हुए हैं। एक प्रमुख राजनीतिक दल के विरोध का प्रमुख कारण केवल बहुसंख्यकों को भावनात्मक रूप से आकृषित करने मात्र तक सीमित है। कुछ राजनीतिक दलों का आधार ही अल्पसंख्यकों तक है। भारतीय राजनीति को अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक के बीच समानुपातिक बहस बड़े व्यापक रूप से प्रभावित करती है तथा देश के हित व अहित जुड़े है अतएव इस विषय वस्तु को विस्तार से अध्ययन करने की परम आवश्यकता है।
भारत में अल्पसंख्यकों को इतिहासः-भारतीय समाज में निवास कर रहे अल्पसंख्यकों को हम अध्ययन की सुविधा के लिए दो श्रेणियों में रखते हैं। पहली श्रेणी में हम बौद्ध, जैन व सिक्ख समाज को लेते है। जिनकी आस्था भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई है। ईसा पूर्व करीब 6वी शताब्दी में पहली बार धार्मिक क्रांति हुई और तत्कालीन क्षत्रिय हिन्दू राजाओं ने यज्ञों, कर्मकांड़ांे तथा परोहितों की प्रधानता को समाप्त कर उत्तम आचरण तथा समानता के बीजारोपण के साथ-साथ जनमानस को सरल एवं सुगम्य जीवन जीने की कला से अवगत कराते हुए बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की अवधारणा को अवतरित किया तथा इसका प्रचार-प्रसार देश के साथ-साथ विदेशों में  भी किया परन्तु कालांतर में बौद्ध धर्म का विकास भारत में लुप्त हो गया, सिवाय इस प्रसंग को छोड़कर की डॉ. भीमराव अम्बेड़कर के आह्वान पर हजारों दलितों ने बौद्ध धर्म को अंगीकार किया परन्तु उनको दलित वर्ग मंे ही शुमार किया जाता है तथा दलित राजनीति का हिस्सा है न कि अल्प संख्यक समाज का। बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रचुर मात्रा में प्रचार हुआ जैसा कि आज भी विद्यमान है परन्तु जैन धर्म विदेशों में न जाकर भारत में ही सीमित रहकर जाति विशेष (वैश्य) का अभिन्न अंग बन गया। अतः जैन धर्म के अनुयायियों को एक प्रकार से बहुसंख्यक समाज का अंग के रूप में माना जाता है। सिक्ख धर्म की अवधारणा भारतीय संस्कृति के पुर्नउत्थान के दौर में हुई तथा इस दौर में अनेक संत महात्मा अवतरित हुए तथा भारतीय समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों-अंधविश्वासों व पाखंड का विरोध किया तथा स्वस्थ विचारों का प्रवचनों के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया। इसी परिपेक्ष्य में महान संत गुरु नानक देव की प्रेरणा से गुरु गोविन्द सिंह जी ने बहुसंख्यक समाज की रक्षा के लिए सिक्ख धर्म को अवतरित किया तथा तत्कालीन राजसत्ता की ज्यादतियों का डटकर विरोध किया। ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को सिक्ख धर्म को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था तथा इसका प्रचलन भी था। कट्टर पंथियों के दबाव में सिक्ख धर्म के ठेकेदारों ने मुख्यधारा से हटकर अलग धर्म की पहचान बनाई तथा अल्पसख्ंयकों के रूप में स्थापित किया।
दूसरी श्रेणी में हम मुस्लिम व ईसाइयों को लेते हैं, जिन्होंने विदेशी धर्म को स्वीकार किया। हमारा मानना है कि भारत के मुस्लिम ज्यादातर भारत की मुख्यधारा के ऐसे वर्ग विशेष के अंतर्गत आते हैं जिनके पुरखे सत्तासुख के आस-पास रहे और उस सुख को बनाए रखने के लिए मुगल शासकों से प्रभावित होकर विदेशी धर्म को स्वीकार कर लिया। क्योंकि इनकी जातियां व उपजातियां बहुसंख्यकों की वर्ग विशेष की अवधारणा अजगर (अहीर, जाट, गूजर, राजपूत) की भांति कुछ सत्ता सुख में अगड़े हो गये और कुछ सत्ता सुख में पिछड़े ही रह गये जैसा है कि मुस्लिम समाज की राजनीतिक जागरुकता दर्शाती है जो किसी हद तक आर्थिक पिछड़ेपन का भी बहुत बड़ा कारण है। परन्तु इसी दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत ईसाइयों के परिपेक्ष में ऐसा नहीं कहा जा सकता। भारत में रह रहे अधिकतर ईसाईयों ने सामाजिक भेदभाव व बदहाली की हालत से उभरने के लिए दलित समाज से अलग होकर अंग्रेजों के शासन काल में अंग्रेजों द्वारा प्रोत्साहित होकर विदेशी धर्म को स्वीकार किया परन्तु भारतीय ईसाई ज्यादातर शांत स्वभाव के सरल नागरिक हैं। 
अल्पसंख्यकों में तीन बड़ी महत्वपूर्ण समानतायें: भारत में निवास कर रहे सभी अल्पसंख्यकों में तीन बड़ी महत्वपूर्ण समानतायें हैं। पहली सभी अल्पसंख्यक इस देश के बहुसंख्यकों की भांति ही आदिकालीन भारतवासी हैं किसी को भी अपने को विदेशियों का वशंज होने का भ्रम नहीं रखना चाहिए चाहे वह मुस्लिम हैं अथवा ईसाई। हमारा मानना है कि हम सबके पूर्वज कभी न कभी सगे-सम्बंधी अवश्य रहे होंगे। दूसरी बड़ी महत्वपूर्ण समानता यह है कि कभी भी धर्म परिवर्तन, जोर-जबरदस्ती, तलवार या किसी भी प्रकार की ताकत के कारण नहीं हुआ, इसका मुख्य कारण सदैव सहमति, आस्था अथवा स्वार्थ रहा। तीसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण समानता यह है कि भारत के अर्वाचीन, पुरातन व सनातन संस्कृति को जब भी समाज के ठेकेदारों ने विकृत करने की कोशिश की, जीवंत मूल्यों के स्थान पर जड़ता मूलक विचारों को स्थापित करने का प्रयास किया गया अथवा प्रतीकों को साकार रूप में आस्था हेतू उकसाया तभी नया दृष्टिकोण धर्म के रूप में अथवा सामाजिक व धार्मिक परिवर्तन के रूप में सामने आया। 
राजनैतिक दल व अल्पसंख्यक: लोकतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था का आधार दल होते हैं। दलों की रचना निश्चित सिद्धांत, उच्च आदर्श, स्पष्ट विचारधारा पर आधारित होती है और जनता की विश्वसनीयता उनकी जनता के प्रति वचनबद्धता पर आधारित होती है, परन्तु दुर्भाग्य से आजादी के तीन दशकों के बाद से राजनीतिक दलों का चरित्र बदल गया है। सिद्धांत व विचारधारा लुप्त हो गई है और उसका स्थान वोटबैंक ने ले लिया है। प्रायः सभी राजनीतिक दल अल्पसंख्यक समुदाय को वोटबैंक के रूप में लेते हैं तथा उसके अनुसार ही दृष्टिकोण स्वीकारते हैं। इस पूरे प्रकरण को गहराई से तथा स्पष्टता के साथ समझने के लिये भारत के सभी राजनीतिक दलों को तीन श्रेणियों में रखकर विवेचन करते हैं। 
पहली श्रेणी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को लेते हैं जिनका वैचारिक व स्वभाविक दृष्टि से अल्पसंख्यकों के प्रति सदैव ही सकारात्मक दृष्टिकोण रहा है उसका प्रमुख कारण कांग्रेस का देश की आजादी के संघर्ष में जुड़े रहने का रहा। आजादी के संघर्ष से चाहे वह महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसापूर्ण आंदोलन था या क्रांतिकारियों का आंदोलन अथवा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज, सभी आंदोलनों में भारत के नागरिक चाहे व किसी भी धर्म में आस्था रखते थे, समान रूप से सहभागी रहे आजादी के बाद संवैधानिक रूप से भारतीय गणतंत्र को धर्म निर्पेक्ष के रूप में  स्वीकार करने में भी यही आधारभूत कारण रहा अतएव अधिकतर अल्पसंख्यक कांग्रेस के पक्षधर रहे और कांग्रेस का दृष्टिकोण भी सकारात्मक रहा यही कारण है कि आजादी के बाद लगभग तीन दशकों तक केन्द्र व राज्यों में कांग्रेस का पूरा वर्चस्व रहा। 
दूसरी श्रेणी में भारतीय राजनीति में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरे आजादी के बाद तीन दशकों तक भारतीय जनसंघ के रूप में तथा उसके बाद भारतीय जनता पार्टी को लेते हैं जिनका प्रमुख आधार बहुसंख्यक वर्गों का रहा है। यही कारण है अल्पसंख्यकों को लेकर इनका दृष्टिकोण सदैव संकुचित रहा है। भारतीय राजनीति में प्रायः देखा गया है कि भाजपा समय-समय पर बहुसंख्यकों के हिन्दुत्व की भावनात्मक भावना के आधार पर मतों के धु्रवीकरण का राजनैतिक लाभ उठाती रही है। यह अलग बात है कि भाजपा ने संवैधानिक बाध्यता के कारण कुछ मुस्लिम नेताओं को आगे करके धर्मनिर्पेक्षता का दिखावटी मुखौटा लगाया हुआ है।
तीसरी श्रेणी में बाकी सबदल आते है चाहे वे सीपीएम है अथवा सीपीआई या उनके सहयोगी। इसके साथ-साथ आरम्भ से विभिन्न समाजवादी पार्टियां बाद में चलकर जनता पार्टी फिर जनता दल और अब जनता दल के विभिन्न घड़े व समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी सभी लगभग अल्पसंख्यकों के प्रति एक जैसा यानि वोट बैंक की राजनीति के खातिर विभिन्न उपक्रमों द्वारा अल्पसंख्यकों को आकृषित करने का लक्ष्य साधते रहना है। साम्यवादी दलों को छोड़कर बाकी लगभग सभी दलों की कार्यप्रणाली विचारधारा एवं उद्देश्य एक जैसा है। सभी दल किसी व्यक्ति विशेष की बपौती की भांति व्यवसायिक संगठन के रूप में कार्य करते हैं। इनका पूरा तानाबान गैर लोकतांत्रिक विशुद्ध रूप से तानाशाही व जातिवाद की बुनियाद पर आधारित है। अल्पसंख्यकों का पक्षधर होना भी इनकी कूटनीतिज्ञता का एक हिस्सा है। इन कुंठित विचारों ने देश के लोकतंत्र को भी कमजोर किया है और राजनीतिक भ्रष्टाचार को जन्म दिया है। इसका सबसे बड़ा दुखदायी पहलु यह है कि साम्यवादी जिनके पास स्पष्ट व शुद्ध रूप से वैज्ञानिक सोच पर आधारित समाज की वर्ग संघर्ष की अवधारणा के होते हुए इन जातिवादी अराजक तत्वों की पूछ पकड़कर चलना है।
अल्पसंख्यकों को आरक्षण राजनीतिक छलावा: अल्पसंख्यकों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण देना अथवा इससे अधिक देने की बात करना और इसका विरोध करना सरासर राजनीतिक छलावा है क्योंकि हमारे संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने का न तो कोई प्रावधान है और न ही किसी आयोग की शिफारिश है, चाहे वह मंडल आयोग है अथवा सच्चर कमेटी। अलबत्ता सर्वोच्च न्यायालय ने भी मार्च 2010 में अल्पसंख्यकों की अगड़ी जातियों को आरक्षण देने में रोक लगाई थी। इस प्रकार से जब वह अधिकारिक तौर पर धर्म के नाम पर भारतीय जनता को अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक रूप में वर्गीकृत किया गया है और आरक्षण का आधार विशुद्ध रूप से धर्म न होकर जातिगत है फिर अल्पसंख्यक को आरक्षण की संज्ञा देना सरासर गलत है और भ्रम फैलाने जैसा है।
अल्पसंख्यकों का आरक्षण व जातिगत समीकरण: भारत में निवास कर रहे अल्पसंख्यकों के जातिगत समीकरण जैसा कि हम उपरोक्त में अल्पसंख्यकों के प्रादुर्भाव की परिस्थितियों की चर्चा की है ठीक उसी के अनुरूप जातिगत आधार है।
मंडल कमीशन ने मुस्लिमों की कुल आबादी 11.2 प्रतिशत मानते हुए इसके आधे से ज्यादा को पिछड़ा वर्ग का माना गया था इनमें जुलाहे, तेली, बढ़ई, धोबी आदि 80 मुस्लिम समूहों को पिछड़ा घोषित करते हुए 27 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग के दायरे में आने वाली जातियों में मुस्लिम आबादी 8 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा मानी गई थी और अन्य बहुसंख्यकों के पिछड़ों की भांति 27 प्रतिशत आरक्षण के दायरे के अंतर्गत ही प्रावधान किया गया था। भारतीय मुसलमानों में अनुसूचित व जनजातियां नहीं हैं इसलिए उनका 23 प्रतिशत आरक्षण के दायरे में आने का प्रश्न ही नहीं उठता जबकि इसके विपरीत बौद्धों, सिक्खों व ईसाईयों में पिछड़ी जातियां ही नहीं हैं। इसीलिए पिछड़ों के आरक्षण के दायरे में इन अल्पसंख्यकों को लाया नहीं गया है। अलबत्ता बौद्धों, सिक्खों व ईसाईयों में अनुसूचित व जनजाति के तहत जो अल्पसंख्यक आते है उनको 33 प्रतिशत आरक्षण के लाभ में शामिल किया गया है जैसा कि बहु संख्यकों के अनुसूचित व जनजाति के लोगों को मिल रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए 4.5 प्रतिशत अथवा इससे अधिक आ आरक्षण देना या जैसा कि देश के अनेक विभिन्न राज्यों में कोटे में से कोटा पहले ही प्राप्त हो रहा है भ्रम पैदा करता है हमारी नजर में कोटे के अंतर्गत छोटे कोटे में सीमित होना कैसे लाभप्रद माना जा सकता है यह तो सरासर घाटे का सौदा है।
अल्पसंख्यक खुलकर कर आगे आयें और देश को नई दिशा दें: इस लेख के माध्यम से भारत के तमाम अल्पसंख्यकों चाहे व मुस्लिम है बौद्ध है, ईसाई है अथवा सिक्ख सभी अल्पसंख्यक जातिगत आधारित आरक्षण के लोभ का त्याग करंे बहुसंख्यकों को मिलने वाले जातिगत आरक्षण का घोर विरोध करे तथा आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों को मिलने वाले आरक्षण की अवधारणा की आवाज को बुलन्द करें ताकि समूचे भारतवासियों का सर्वव्यापक  विकास सम्भव हो सके। इसी में सारे राष्ट्र का कल्याण है।

Saturday, 8 September 2012


पूरा तंत्र आम आदमी के विरुद्ध क्यों है?



कुछ भी लिखने से पूर्व पूरा तंत्र व आम आदमी को परिभाषित करना परम आवश्यक है ‘पूरा तंत्र’ से हमारा तात्पर्य समूचे नेतृत्व से है जो समूचे लोकतंत्र को संचालित कर रहा है अर्थात विधायिका (संसद) कार्यपालिका (सरकार) न्यायपालिका तथा चौथा स्तम्भ मीडिया जो विशेष तौर पर भारतीय लोकतंत्र को खास प्रकार से प्रभावित रखता है इन चारों स्तम्भों के कर्त्ताओं को तथा देश के सभी राज्यों एवं कारपोरेट जगत के नीति निर्धारकों को भी इस पूरे तंत्र में शामिल कर लिया जाए तो हमारी समझ से देश की कुल जनसंख्या का एक प्रतिशत से अधिक किसी भी सूरत में नहीं बैठेगा। हमारा अभिप्राय स्पष्ट है कि कुल जनसंख्या का एक प्रतिशत बुद्धिजीवी वर्ग जिसकी ग्रिप में पूरा तंत्र है। आम आदमी को परिभाषित करने लिए हम सरकारी आकड़ों का सहारा लेते हैं। आकड़ों के मुताबिक औसत आय 50 हजार सालाना है औसत का मतलब 50 प्रतिशत होता है अर्थात देश के 50 प्रतिशत व्यक्तियों की मासिक आय लगभग 4 हजार रुपये के आस-पास है। शेष 50 प्रतिशत में से कुल संख्या के लगभग 10 प्रतिशत व्यक्ति सरकारी राजस्व की भागीदारी में तथा कुछ प्रतिशत तिकड़मबाजी से भले ही सरकार को राजस्व नहीं देते हैं, परन्तु सम्पन्न वर्ग में आते है इस प्रकार से कुल मिलाकर 90 प्रतिशत आम आदमी हैं शेष 10 प्रतिशत सम्पन्न वर्ग में आते हैं और मात्र एक प्रतिशत व्यक्तियों का इस पूरे तंत्र पर कब्जा है।

आम आदमी और तंत्र से जुड़े ताकतवर बुद्धिजीवी व्यक्तियों के बारे में जब विचार आता है तो मुझे प्रसिद्ध साहित्यकार श्री नरेन्द्र कोहली द्वारा रचित रामकथा के एक सुन्दर प्रकरण की याद आती है जो आज के परिपेक्ष्य में उतना ही सार्थक है जितना सनातन समय में सार्थक रहा होगा। प्रकरण इस प्रकार से है अयोध्या के राजा दशरथ से महर्षि विश्वामित्र ने उनके यशस्वी एवं पराक्रमी पुत्र राम और लक्ष्मण को अपने यज्ञ की राक्षसों से रक्षा करने के उद्देश्य से ले जाने के लिये कहा। राजा दशरथ ने ना चाहते हुए भी महर्षी विश्वामित्र के श्राप के डर से मना नहीं कर सके और राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र को सहर्ष सौंप दिया।  अयोध्या की सीमाओं की समाप्ति के बाद राजशी रथ को त्याग दिया गया और राम और लक्ष्मण को महर्षी ने अपने साथ साधारण मनुष्यों की तरह पैदल चलने की आज्ञा दी। विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण से कहा मेरे पास दिव्य शक्तियां हैं जिनको में अपने ज्ञान से आपको प्रदान करना चाहता हूं ताकि उन दिव्य शक्तियों का प्रयोग करके मेरे यज्ञ की राक्षसों से रक्षा करने का दायित्व आप उठा सके। परन्तु उन शक्तियों को प्रदान करने से पूर्व मैं यह अवश्य जानना चाहूंगा कि आप दोनों उन दिव्य शक्तियों के ज्ञान प्राप्ति के सुपात्र भी हैं अथवा नहीं। यदि आप सुपात्र नहीं हैं तो मेरे लिए बेहतर होगा में यही से आप दोनों को वापिस भेज दूं, अतः आवश्यक है मुझसे कुछ प्रश्न करो, जिनका में उत्तर दूं और फिर में आप दोनों से कुछ प्रश्न करूंगा जिसका आप उत्तर देंगे जिनका उत्तर पाने के बाद मैं संतुष्ट होने पर ही किसी निर्णय पर पहुचूंगा। काफी समय तक प्रश्नोत्तर का दौर चला बहुत सारे प्रश्न किये गये और दोनों और से उत्तर दिये गये इस श्रंखला में एक प्रश्न लक्ष्यम ने महर्षि के सामने प्रस्तुत किया जिसका उत्तर महर्षि ने बड़ा स्टीक रूप से दिया जिसकी चर्चा मैं खास तौर से करना चाहूंगा। लक्ष्मण ने महर्षि से बड़ा सारगर्भित प्रश्न रखते हुए कहा बुद्धिजीवी से आपका क्या तात्पर्य है। महर्षि विश्वामित्र ने तपाक से जवाब दिया जो अपनी बुद्धि का प्रयोग सम्पन्न व्यक्तियों की सम्पन्नता बनाये रखने अथवा और अधिक उन्नत करने में लगाये वही बुद्धिजीवी है। महर्षि विश्वामित्र का यह कथन वास्तव में आज भी उतना ही सार्थक और प्रसांगिक है कि जितना सदियों पूर्व था। इस प्रसंग की चर्चा हमने विशेष रूप से इसलिये की ताकि इस निर्णय पर आसानी से पहुंचा जा सके कि आज के इस पूरे तंत्र पर एकाधिकार प्राप्त बुद्धिजीवी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से  सारी शक्ति और बुद्धि केवल 10 प्रतिशत सम्पन्न व्यक्तियों के हितों को साधने में रहती है तथा अन्य 90 प्रतिशत आम जन को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

आजादी के बाद हमारे देश ने आदर्श एवं कल्याणकारी राज्य के रूप में विधि सम्मत लोकतंत्र की स्थापना की जिसकों नाम दिया गया ‘‘सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’’ लोकतंत्र का सीधा सा मतलब है लोगों द्वारा लोगों के लिए और लोगों का तंत्र। इस तंत्र में से लोग कैसे और कब गायब हो गये पता ही नहीं चला। समाजवादी होने का मतलब साफ है आर्थिक दृष्टि से 1 से 10 प्रतिशत तक का अंतर होना चाहिए। परन्तु हमारे देश में तो आम आदमी और तंत्र पर एकाधिकार जमाये व्यक्तियों की आय का अंतर 1 से 100 अथवा  1 से 1000 को छोड़िये 1 से एक लाख अथवा एक करोड़ से भी अधिक है। फिर यह कैसा समाजवाद है? हमारे संविधान में आम लोगों के लिये स्पष्ट व्याख्या है राज्य का कर्त्तव्य एवं एकमात्र लक्ष्य है सभी देशवासियों को रोटी, कपड़ा और मकान, एक समान मिले। यह कितना सत्य है दीवार पर लिखी इबारत की तरह, स्पष्ट है आम आदमी अर्थात 90 प्रतिशत व्यक्ति तो रोटी और कपड़े में ही उलझा रहता है। मकान की तो कल्पना भी नहीं कर सकता। मकान अर्थात जमीन के वर्चस्व की लड़ाई एक प्रतिशत जिनका इस तंत्र पर कब्जा है और 10 प्रतिशत जो सम्पन्न वर्ग है के बीच है जो धीरे-धीरे 10 प्रतिशत से खिसक कर 1 प्रतिशत के पास जा रहा है। पहले दौर में जय प्रकाश नारायण की जनक्रांति के बाद सत्ता सुख से बने नये ‘भूपति’ 1 प्रतिशत वर्ग में शामिल हो गये दूसरे दौर में वी.पी. सिंह की सत्ता पलट के बाद भूपति से ‘भूमाफिया’ हो गये तथा 1 प्रतिशत वर्ग में और अधिक शामिल हो गये और अब आर्थिक उदारीकरण तथा योग गुरु बाबा रामदेव के विदेशी धन को वापस लाने के आंदोलन के बाद तो विदेशी धन पूरी तरह रियल स्टेट के कारोबार में समा गया है अब तो भारत की पूरी जमीन पर केवल 1 प्रतिशत वर्ग का कब्जा सीमित हो जायेगा। 

रोटी, कपड़ा और मकान के बाद हम प्राकृतिक संशाधनों पर चर्चा करेंगे जो प्रकृति का मुफ्त उपहार है। हवा, पानी, अग्नि, पृथ्वी और आकाश सभी प्रकृति के आवश्यक तत्व है जिनके योग से पूरा संसार बना है। इस सम्पूर्ण संसर में हमारा देश भी इस संसार का एक छोटा सा हिस्सा है हमारे देश में प्राकृतिक संशाधन जो प्रकृति की मुफ्त देन है उसमें पृथ्वी की हम चर्चा कर चुके है किस प्रकार पृथ्वी और उसके गर्भ में छुपे बहुमूल्य खनिज पदार्थ आम आदमी की पहंुच से दूर हो चुके हैं, बंदरबांट युद्ध स्तर पर जारी है। आकाश में विचरण करना कितना बहुमूल्य है आम आदमी की पहुंच से बाहर है। पानी के नाम पर दूषित पानी तो उपलब्ध है परन्तु वह भी कुछ समय के लिए, यदि समय रहते आवश्यक प्रबंध नहीं किये गये तो आने वाला युद्ध पानी पर ही होगा। हम चर्चा करेंगे हवा और प्रकाश अर्थात बिजली की। यह हमारे जीवन के आवश्यक अंग ही वरन अनिवार्य हैं, इनके बिना जीवत रहना संभव नहीं है। हवा के अनेक रूप है। हवा में विद्युत तरंगों का समावेश करके संचार माध्यम हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। सरकार की कल्याणकारी अवधारणा ने मोबाइल संस्कृति को आम आदमी की जीवनधारा में जोड़ दिया है। ठीक इसी प्रकार से बिजली उत्पादन में सरकार की सदैव कोशिश रही है कि आम आदमी को सस्ती से सस्ती बिजली उपलब्ध हो सके। परन्तु हमारी सरकार की इन कल्याणकारी एवं जनहित के प्रयासों पर प्रभावशाली एवं विशेष अधिकार वाले ब्यूरो क्रेटस वेतन भोगी नौकरशाहों की दृष्टि सुखद नहीं है। अभी हाल में चर्चा में आई सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार टू-जी स्पेक्ट्रम में 1.76 लाख करोड़ तथा कोयला ब्लाक आवंटन में 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान की भरपाई समय रहते सरकार कर देती तो एक आकलन के अनुसार मोबाइल की रेट 1 मिनट की 15 रुपये हो जाती और बिजली की दर कोयले के महंगे हो जाने के कारण 25 रुपये प्रति यूनिट से भी ज्यादा पड़ती। अतः इस हिसाब से यकीन मानिये आम आदमी मोबाईल के इस्तेमाल को तो भूल जाइए देखने को भी तरस जाता और बिजली की एक चमक को प्राप्त करने से सदैव वंचित रहता। अब आगे-आगे देखिये होता क्या है?

Thursday, 19 July 2012

हमारा राष्ट्रपति कैसा हो?



विश्व में हमारे लोकतंत्र की पहचान विविध धर्मावलम्बियों, भाषाओं, जातियों उपजातियों, प्रजातियों वर्गों उपवर्गों के मध्य अनेक विभिन्नताओं एवं विषमताओं के बीच एकता के प्रतीक के रूप में जाना जाता हैं। हमारे लोकतंत्र का प्रमुख तथा प्रथम नागरिक हमारी इस पुरातन एवं समृद्धशाली भारतीय संस्कृति का पोषक एवं प्रतीक होना चाहिए जिसका दृष्टिकोण निश्चित रूप से विशाल हो। सच बात तो यह है कि संकुचित दृष्टिकोण हमारी संस्कृति में कोई स्थान नहीं रखता।

हमारा पुरातन इतिहास हमारी मूल्यवान धरोहर है। इतिहासकार अभी तक प्रमाणित नहीं कर पाये है कि आर्य इस पवित्र भू-भाग के मूलवासी थे अथवा विदेशी फिर भी आर्य सभ्यता हमारा आर्दश है और वेदों पर आधारित गीता दर्शन हमारी सांस्कृतिक अवधारणाओं का मार्ग प्रशस्त करती है अनेक विदेशी भ्रमणकारी-प्रवासी के रूप में भारत आये और इसकी पवित्र मिट्टी में रच-बस गये। अनेक विदेशी आक्रांता शट, हुण, मुगल, अंग्रेज आदि का आगमन हुआ और कालान्तर में हमारी संस्कृति को आत्मसात कर लिया। आज उनकी आत्मा में निवास करती है। अति हिन्दूवादियों को शायद अटपटा सा लगे। जब हम अपने आदि देवता गणपति की पूजा अर्चना करते हुए कहते हैं ‘‘भोग लगे लड्डुओं का संत करे सेवा’’ के अंतर्गत बून्दियों से बना लड्डु मुगल कालीन सभ्यता की पाक कला की अद्भुत देन है।

हमार विशाल दृष्टिकोण ही विश्व प्रेम व विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त करता है। हमारे राष्ट्र का मुखिया यदि संकुचित विचारों का होगा और देश की सीमाओं तक ही सीमित सोच का होगा तो हम विश्व को कोई सार्थक चिन्तन देने में सर्वथा असमर्थ रहेंगे।

उपरोक्त विचार वर्तमान राष्ट्रपति के चुनावों के परिपेक्ष में प्रस्तुत किये गये हैं। राष्ट्रपति के उस आसान पर आसीन होने हेतु दो प्रत्याशी प्रमुख रूप से सामने हैं। प्रथम प्रत्याशी सत्तापक्ष की ओर से माननीय श्री प्रणव मुखर्जी का नाम प्रस्तुत है जो एक लम्बे समय से राष्ट्र की कार्यपालिका में वरिष्ठता रखते हुए अनेक मंत्रालयों का कार्यभार सफलतापूर्वक एवं गरिमा के साथ निभाया है तथा बेशुमार उपलब्धियां हासिल की हैं। साफ छवि के आदर्णीय मुखर्जी महामहिम के गरिमापूर्ण पद के लिए सर्वथा श्रेष्ठ ही नहीं अपितु सर्वश्रेष्ठ है। दूसरा नाम विपक्ष की ओर से श्री ए.के. संगमा को नाम प्रस्तुत किया गया है जो प्र्रत्येक प्रकार सेे अनुपयुक्त है।

भारतीय राजनीति में श्री पी.ए. संगमा ने यद्यपि लम्बी पारी खेली है तथा साफ छवि के व्यक्ति हैं। तथापि उनकी पहचान विशेष रूप से इसलिए नहीं है कि वे आठ बार लोकसभा सदस्य रह चुके हैं और न ही इसलिए है कि वे सन् 1988 से 1991 तक मेघालय राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं अथवा 1996 में लोकसभा सभापति रहे हैं, उनकी असली पहचान कांग्रेस में रहते हुए कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री पद के लिये विरोध करना है और वह भी उनके विदेश में जन्म को लेकर। यद्यपि श्रीमती सोनिया गांधी का यह बहुत बड़ा बड़प्पन था कि भारतीय संविधान में उनको प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने में कोई रूकावट नहीं थी तदापि उन्होंने इस पद को स्वीकार नहीं किया तथा अब तत्कालीन राष्ट्रपति माननीय श्री कलाम द्वारा वास्तविकता बताने के बाद तो यह निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि यह माननीय सोनिया जी का महान त्याग था।

हमें सबसे बड़ा खेद इनके विरोधाभास को लेकर है। श्री पी.ए. संगमा ईसाई धर्म से हैं तथा जनजाति वर्ग से सम्बंध रखते है, प्रत्येक कोई इस विचारधारा से भली-भांति परिचत है कि ईसाई धर्म का प्रमुख आधार मानवीय संवेदना है। योग्यता का आधार जन्म स्थान तो कदापि हो ही नहीं सकता। यह ईसाई धर्म की मूल भावना के विरूद्ध है। जनजाति वर्ग की संस्कृति की मूल अवधारणा भी नितांत रूप से मानवीय मूल्यों पर आधारित है अतएवं निजी रूप से ईसाई तथा जनजाति वर्ग का होते हुए वैचारिक दृष्टि से विपरीत एवं बीमार मानसिकता से पीड़ित हैं। ऐसा व्यक्ति विविधता में एकता प्रदिपादित करने वाले राष्ट्र का प्रथम व्यक्ति होने में सभी प्रकार से अक्षम है। विशेष तौर से किसी बात का विरोध करना और फिर उसे स्वीकार कर लेना और सत्ता सुख भोगना तो उसकी नियतता को प्रमाणित करता है। स्मरण रहे जनजाति समाज के उत्थान, विकास एवं जागरुक करने हेतु बहुत सारी सामाजिक संस्थाये कार्यरत हैं, जिन्हें केन्द्र सरकार से बहुत बड़ी संख्या में आर्थिक मदद मिलती है कुछ संघ परिवार की संस्थायें भी अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत है और कुछ ईसाई मिशनरीज भी धर्म प्रचार में विदेशी धन का प्रयोग कर रहे हैं। कुल मिलाकर यह सारी समाज सेवा का कार्य जनजातियों के कल्याण के लिए कम धन कमाने में ज्यादा हो रहा है। अतएवं जनजातियों के कल्याण हेतु एक बहुआयामी योजना को कार्यरूप देने की परम आवश्यकता है परन्तु जनजातियों के वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करने का दम भरने वाले श्री पी.ए. संगमा का इस क्षेत्र में कोई भी सारगर्भित योगदान नहीं रहा है। श्री पी.ए. संगमा के नाम की प्रस्तुति तथा समर्थक उन तमाम राजनैतिक दलों द्वारा किया जा रहा है जिनकी विचारधारा संकुचि तथा क्षेत्रवाद तक सीमित है। जहां तक भाजपा का सवाल है यह तो उनकी पुरानी आदत है कांग्रेस द्वारा फेके हुए बासीफूल को उन्होंने अपने शयन कक्ष में सदैव सजा कर रखा है।